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Showing posts from November, 2019

अधिगम (सीखना) का अर्थ , प्रभावित करने वाले करक

अधिगम (Learning) मनुष्य में सीखने का क्रम जन्म से मृत्यु तक चलता रहता है। कुछ सीखने के बाद मानव अनुभवों के आधार पर कार्यरूप देने का प्रयास करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन आता है। व्यवहार में होने वाले इन परिवर्तनों को ही सीखना अथवा अधिगम कहते है। वास्तव में सीखने की प्रक्रिया व्यक्ति की शक्ति और रुचि के कारण विकसित होती है। बच्चों में स्वयं अनुभूति द्वारा भी सीखने की प्रक्रिया होती है, जैसे-बालक किसी जलती वस्तु को छूने का प्रयास करता है और छूने के बाद की अनुभूति से वह यह निष्कर्ष निकालता है कि जलती हुई वस्तु को छूना नहीं चाहिए। अधिगम की यह प्रक्रिया सदैव एक समान नही रहती है। इसमें प्ररेणा के द्वारा वृद्धि एवं प्रभावित करने वाले कारकों से इसकी गति धीमी पड़ जाती है। वुडवर्थ के अनुसार ‘‘नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है।‘‘ क्रो एण्ड क्रो के अनुसार ‘‘सीखना, आदतों, ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन है।‘‘ स्किनर के अनुसार ‘‘सीखना, व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की एक प्रक्रिया है।‘‘ उपर्युक्त अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर सीखने

निरीक्षण विधि (Observation Method) का बाल व्यवहार में अध्ययन

हम जानते है अंग्रेजी शब्द के Observation शब्द को निरीक्षण कहा जाता है। जिस का अर्थ होता है निरीक्षण करना या देखना। हम यह भी देखते है इस निरीक्षण में अधिकतर आँखों का प्रयोग किया जाता है। कानों और वाणी का कम।इस विधि के द्वारा प्रत्यक्षत: मिलती है। छोटे बच्चे ना तो प्रश्नों को ठीक से समझ पाते है और न ही उसके उत्तर दे पाते हैं,अतः उनके व्यवहार का अध्ययन करने के लिए निरीक्षणकर्ता बच्चों के समूह में भाग लेता है अथवा दूर खड़ा होकर उनके व्यवहार का अध्ययन करता है। तत्पश्चात् बच्चों के व्यवहार को देखकर वह विश्लेषण द्वारा कुध तथ्यों का पाता लगाता है और उनकी व्याख्या करता है। इस निधि द्वारा बच्चों के सामाजिक विकास, समाज और उनके व्यक्तित्व का सम्बन्ध, उनके नेतृत्व आदि का पता लगाया जाता है। विद्वानों ने निरीक्षण विधि की अलग अलग परिभाषाएं दी हैं – आँक्सफोर्ड कान्साईज डिक्शनरी के अनुसार – “ अवलोकन का अर्थ है – घटनाओं को, जैसे वे प्रकृति में होती हैं, कार्य तथा कारण से सम्बन्ध की दृष्टि से तथ्य देखना तथा नोट करना है। “ प्रो . गुडे एवं हॉट के अनुसार – “ विज्ञान निरीक्षण से आरम्भ होता है और इसे आन्त

कारक (Case) की परिभाषा

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं। अथवा- संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) क्रिया से सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं। इन दो 'परिभाषाओं' का अर्थ यह हुआ कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब 'ने', 'को', 'से' आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही 'कारक' कहलाता हैं। तभी वे वाक्य के अन्य शब्दों से सम्बन्ध रखने योग्य 'पद' होते है और 'पद' की अवस्था में ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों से या क्रिया से कोई लगाव रख पाते हैं। 'ने', 'को', 'से' आदि विभित्र विभक्तियाँ विभित्र कारकों की है। इनके लगने पर ही कोई शब्द 'कारकपद' बन पाता है और वाक्य में आने योग्य होता है। 'कारकपद' या 'क्रियापद' बने बिना कोई शब्द वाक्य में बैठने योग्य नहीं होता। दूसरे शब्दों में- संज्ञा अथवा सर्वनाम को क्रिया से जोड़ने वाले चिह्न अथवा परसर्ग ही कारक कहलाते हैं। जैस

अलंकार(Figure of speech) की परिभाषा-

जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है। दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है। संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है। जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की। संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं। रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है। जिस प्रकार आभूषण स्वर्ण से बनते है, उसी प्रकार अलंकार भी सुवर्ण (सुन्दर वर्णों) से बनते है। काव्यशास्त्र के प्रारम्भिक काल में 'अलंकार' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। इसके अतिरिक्त, प्राचीन काल

अनेकार्थी शब्द

ऐसे शब्द, जिनके अनेक अर्थ होते है, अनेकार्थी शब्द कहलाते है। दूसरे शब्दों में- जिन शब्दों के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उन्हें 'अनेकार्थी शब्द' कहते है। अनेकार्थी का अर्थ है – एक से अधिक अर्थ देने वाला। यहाँ कुछ प्रमुख अनेकार्थी शब्द दिया जा रहा है। ( अ, उ ) अपवाद- कलंक, वह प्रचलित प्रसंग, जो नियम के विरुद्ध हो। अतिथि- मेहमान, साधु, यात्री, अपरिचित व्यक्ति, यज्ञ में सोमलता लाने वाला, अग़्नि, राम का पोता या कुश का बेटा। अरुण- लाल, सूर्य, सूर्य का सारथी, इत्यादि । आपत्ति- विपत्ति,एतराज। अपेक्षा- इच्छा, आवश्यकता, आशा, इत्यादि। आराम- बाग, विश्राम, रोग का दूर होना। अंक- भाग्य, गिनती के अंक, नाटक के अंक, चिन्ह संख्या, गोद। अंबर- आकाश,अमृत, वस्त्र। अनंत- आकाश, ईश्वर, विष्णु, अंतहीन, शेष नाग। अर्थ- मतलब, कारण, लिए, भाव, अभिप्राय, धन, आशय, प्रयोजन। अवकाश- छुटटी, अवसर, अंतराल आम- आम का फल, सर्वसाधारण, मामूली, सामान्य। अन्तर- शेष, दूरी, हृदय, भेद। अधर- धरती (आकाश के बीच का स्थान), पाताल, नीचा, होंठ। आराम- विश्राम, निरोग होना। उत्तर- उत्तर दिशा, जवाब, हल, अतीत, पिछला, बाद का इत

हिन्दी साहित्य – काव्य

आदिकाल (650 ई०-1350 ई०) हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है। हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने 'चरण काल', मिश्र बंधु ने 'प्रारंभिक काल', महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'बीज वपन काल', शुक्ल ने 'आदिकाल: वीर गाथाकाल', राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्ध- सामंत काल', राम कुमार वर्मा ने 'संधिकाल' व 'चारण काल', हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' की संज्ञा दी है। आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता। प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता , कीर्तिपताका इत्यादि। मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली इत्यादि। विद्यापति ने 'कीर्तिलता' व 'कीर्तिपताका' की रचना अवहट्ट में और 'पदावली' की रचना मैथली में की। आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है