बाल केन्द्रित शिक्षा
बाल केन्द्रित शिक्षा ( Child Centered Education )
जैसा कि हमने पढ़ा है कि प्राचीन काल में शिक्षा का जो स्वरूप था और वर्तमान में शिक्षा का जो स्वरूप हम देखते है । उन दोनो में बहुत अन्तर है । बाल – केन्द्रित शिक्षा की आवधारणा को जानने से पूर्व हमे शिक्षा की आवधारणा को जानना होगा क्योकि यह जाने बिना हम शिक्षा के स्वरूप को समझ नहीं पाएंगे। अतः पहले शिक्षा के अर्थ पर चर्चा करते है ।
शिक्षा का अर्थ ( Meaning of education ) : शिक्षा अंग्रेजी शब्द एजुकेशन ( Education ) का हिन्दी रूपान्तर है जिसकी उत्पति लेटिन शब्द ऐजूकेटम ( Educatum ) से हुई है जिसका अर्थ है शिक्षण की कला इसी के समानान्तर एक ओर शब्द है एडूकेयर ( Educare ) जिसका अर्थ है शिक्षित करना पालन पोषण करना, सामने लाना, नेतृत्व प्रदान कना । ये सभी अर्थ शिक्षा की क्रिया एवं प्रक्रिया की ओर सकेंत करते है ।
जाँन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की उन सभी योग्यताओं का विकास है जिनके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियन्त्रण करने की क्षमता प्राप्त करता है और अपनी सम्भावानाओ को पूर्ण करता है ”
प्रसिद्ध दार्शनिक पेस्टालाँजी के अनुसार,” शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शकितयो का स्वाभाविक संतुलित व प्रगतिशील विकास है । ” महात्मा गाँधी जी के शब्दो में “ शिक्षा उन र्सवश्रेष्ठ गुणों को विकसित करती है जो मानव के व बालक के शरीर , माष्तिक और आत्मा में विघमान होते है । “
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा व्यवहार में संशोधन करती है । यह बालक के व्यवहार में ऐसे परिवर्तन लाती है। जो बालक के जीवन में उचित होते है । अगर हम प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली की बात करे तो बालक के मन में ज्ञान की साम्रगी को ठूँस देना ही शिक्षा होती थी । बालक को इस साम्रगी को याद करने के लिए कह दिया जाता था । वह कुध सिद्धांतो व नियमो को स्मरण कर लेता था ।
कालसनिक के अनुसार “ शिक्षा मानव व्यवहार की शक्तियो तथा निहित योग्यताओं का विकास है “
उपरोक्त परिभाषाओ के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा व्यवहार में संशोधन करती है । यह बालक के शरीर , मष्तिक और आत्मा में विद्यमान होते है । “
उपरोक्त पारषिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा व्यवहार में संशोधन करती है । यह बालक के व्यवहार में ऐसे परिवर्तन लाती है । जो बालक के जीवन में उचित होते है । अगर हम प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली की बात करे तो बालक के मन में ज्ञान की साम्रगी को ठूँस देना ही शिक्षा होती थी । बालक को इस साम्रगी को याद करने के लिए कह दिया जाता था । वह कुध सिद्धांतो व नियमो को स्मरण कर लेता था ।
कालकसनिक के अनुसार “ शिक्षा मानव व्यवहार की शक्तियो तथा निहित योग्यताओं का विकास है “
उपरोक्त परिभाषाओ के आधार पर शिक्षा की कुछ विशेषताओ का पाता चलता है । जो निम्न प्रकार से है ।
- मनुष्य में अपने मूल प्रवृत्तियाँ होती है ।
- शिक्षा इन्ही मूल प्रवृत्तियाँ की ,अभिवृतियो की प्रक्रिया में संशोधन काती है ।
- शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य अपने वातावरण में संयोजन करने का प्रयास करता है ।
- शिक्षा नियात्रित वातावरण में मानव विकास की एक व्यापक व निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है ।
- शिक्षा स्वस्थ शरीर मे स्वस्थ मन का विकास होती है ।
- शिक्षा की उत्पत्ति शिक्ष धातु से हुई है जिसका अर्थ है ज्ञान अर्जित । तथा
- शिक्षा का अर्थ ज्ञान के अर्जन द्वारा संस्कारो का निर्माण करना है ।
- बालकों का ज्ञान ( Knowledge of children ) : किसी भी क्षेत्र में अध्यापकों को सफल होने के लिए बाल मनोविज्ञान का ज्ञान अवश्य होना चाहिए ! इसके अभाव में ना तो बालकों की विशेषताओं को ही समझा जा सकता है और ना ही उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सकेगा । बालक के संबंध में शिक्षक को बालको के व्यवहार के मूल आधारों आवश्यकताओं मानसिक स्तर, रुचियों योग्यताओं वह व्यक्तित व्यक्तित्व इत्यादि का व्यापक ज्ञान अवश्य होना चाहिए । और व्यवहार के मूल आधारों का ज्ञान तो अत्यंत आवश्यक होता है । क्योंकि शिक्षा उद्देश्य की ही बालक के व्यवहार को विशुद्ध बनाना होता है । जब तक बालक के व्यवहार को विशुद्ध अथवा परिमार्जित नहीं किया जाएगा तब तक शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सकता है । विद्यालय में पिछड़े हुए व समस्याग्रस्त विद्यार्थियों की कमी नहीं है । उनमें से अधिकतर बालक जैसे – सड़कों बल्वो का फोड़ना, स्कूल से भाग जाना , अपने बड़ों का सम्मान ना करना, आवारागर्दी करते हैं, अपने मोहल्ले में आस पड़ोस के बालको को पीटते है । अगर मनोविज्ञान के अभाव में एक अध्यापक इन समस्याओं को दूर करने का प्रयास करता है । तो वह सफल नहीं हो पाएगा। लेकिन इन बालको को समझने वाला शिक्षक यह जानता होता है कि इन दोषों का मूल उनकी शारीरिक सामाजिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में ही कहीं न कहीं है । मनोविज्ञान अध्यापक को बालको के वैयक्तिक भिन्नताओं से परिचित कराता है । और यह बताता है । कि उनमें स्वभाव रुचि व बुद्धि आदि के आधार पर भिनता होती है अतः एक कुशल शिक्षक मन्द बुद्धि सामान्य बुद्धि व तीव्र बुद्धि वाले विद्यार्थियों में अन्तर करके उन्हें उनकी योग्यताओं के अनुसार शिक्षा देता है अतः शिक्षकों को बाल मनोविज्ञान की जानकारी अवश्य होनी होनी चाहिए ।
- पाठ्यक्रम – विधालय में किसी भी कक्षा का क्याक्रम वैयकितक भिन्नताओं , प्रेरणाओं, मूल्यो व सीखने के सिद्धांतो के मनोविज्ञान के ज्ञान के आधार पर बनाया जाना चाहिए । पाठ्मक्रम को बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि विधार्थी व समाज की क्या आवश्यकताएँ होती है । और कौन – कौन सी पद्धतियो के द्वारा इन्हे आसानी से सीखा जा सकता है ।
- मूल्याकन व परीक्षण : अध्यापक द्वारा केवल शिक्षण मात्र से ही शिक्षा के क्षेत्र की समस्माएँ समाप्त नहीं हो जाती है । शिक्षण के पश्चात बालको कहां मूल्यांकन व परीक्षण भी अत्यंत आवश्यक होता है । मूल्यांकन से यह पता लगाया जा सकता है की विद्यार्थी ने कितना अधिगम किया है । क्योंकि शिक्षा की प्रक्रिया में अध्यापक व विद्यार्थी के लिए अत्यंत आवश्यक है । अध्यापक के अलावा मूल्यांकन का कार्य अन्य लोग भी करते है । और स्वयं द्वारा भी किया जाता है । सभी प्रकार की मूल्यांकन विधियां मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती है । बाल केंद्रित शिक्षा में बालक के मूल्यांकन के लिए बाल मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है ।
- शिक्षण विधि ( Teaching method) : शिक्षा शास्त्र का शिक्षक के लिए विशेष महत्व होता है। क्योंकि एक अध्यापक को शिक्षाशास्त्र ही यह बतलाता है कि बालकों को क्या पढ़ाया जाए ? कैसे ? किस विधि के द्वारा शिक्षण कराया जाए ? वैसे सबसे बड़ी समस्या वही होती है कि विद्यार्थियों को कैसे पढ़ाया जाए ? बाल मनोविज्ञान द्वारा ही अध्यापक को उपयोगी शिक्षण विधि आ सकती है । उसे पता चलता है कि किस प्रकार के बालक को कैसे किस विधि से बढ़ाया जाए |
Comments
Post a Comment