विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास (Social Development in Different Stages)

शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy)   शिशु जन्म से सामाजिक नहीं होता। जन्म के बाद अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। इस प्रकार सामाजिक प्रक्रिया प्रथम सम्पर्क में प्रारम्भ होकर जीवनपर्यन्त चलती है। हम शिशु के सामाजिक विकास को निम्न पक्रार से व्यक्त कर सकते हैं-
आयु माह समाजिक व्यवहार का रूप
प्रथम माह ध्वनियों में अन्तर करना
द्वितीय माह मानव ध्वनि पहचानना, मुस्कराकर स्वागत करना
तृतीय माह माता के लिए प्रसन्नता व माता के अभाव में दुख
चतुर्थ माह परिवार के सदस्यों को पहचानना
पंचम माह प्रसन्नता व क्रोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करना
षष्ठम् माह परिचितों से प्यार व अन्य लोगों से भयभीत होना
सप्तम माह अनुकरण के द्वारा हाव-भाव सीखना
अष्टम एवं नवम् माह हावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों(प्रसन्नता, क्रोध, भय) का प्रदशर्न करना
दशम एवं ग्याहरवें माह प्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास
दूसरे वर्ष की अवधि में बड़ो के कार्यों में सहायता करना, सहयोग, सहानुभूति का विकास
तृतीय वर्ष तक बालक आत्मकेन्द्रित रहता है। वह अपने लिए ही कार्य करता है, अन्य किसी के लिए नहीं। दो या अधिक बालकों के बीच उसमें सामाजिकता का भाव विकसित होता है। इस प्रकार चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक बालक बर्हिमुखी व्यक्तित्व को धारण करना प्रारम्भ कर देता है। शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु का व्यवहार वाहय परिवेश की ओर केन्द्रित होजाता है। शिशु मित्र बनाना, विचार विनमय करना, अपने साथियों में समायाजेन करना सीख जाते हैं। बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood) शिशु का संसार परिवार व बालक का संसार परिवार के बाहर संगी-साथी व विद्यालय होता है।
  • बालक एवं बालिकाओं में सामाजिक जागरूकता, चतेना व समाज के प्रति रूझान होता है। वो समूह का सदस्य होने के नाते समाज या समूह के आदर्शों का पालन करते हैं।
  • इस आयु के बच्चे बालक बालिकाएं अपने समूह अलग-अलग बनाते हैं। उन्हें खेल अधिक प्रिय होते हैं। वे अपने समूह में नियमों का पालन करते है।
  • इस अवस्था में बच्चे मित्र बनाने लगाते है। वे अधिकतर कक्षा के सहपाठी को ही मित्र बनाते हैं।
  • इस आयु में बच्चे आत्मनिर्भर होने का प्रयास करते हैं। वे घर से बाहर निकलकर अन्य बालकों के साथ समय बिताते हैं, कार्य करते हैं व निर्णय भी लेते हैं। उनमें आत्मसम्मान की मात्रा अधिक हातेी है।
  • बाल्यावस्था में बालकों में प्रवृत्तियों चारित्रिक गुण व नागरिक गुणों आदि का विकास होता है। वे अपने माता-पिता, अध्यापक आदि के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं और उनकी विशेषताओं को सीखते हैं।
  • इस अवस्था में बच्चे आत्मकेन्द्रित या स्वार्थी नही होते, बल्कि वे समाज में अपने को समायोजित करते हैं।
  • इस अवस्था में बच्चो में नेता बनने की भावना दिर्खाइ देती है व सामाजिक प्रशंसा व स्वीकृति प्राप्त करने की प्रवृत्ति हातेी है ।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास(Social Development in Adolescence)  किशोरावस्था मानव जीवन की अनोखी अवस्था होती है। उसके प्रति दूसरों के और दूसरों  के प्रति उसके दृष्टिकोण न केवल उसके अनुभवों में, वरन उसके सामाजिक संबंधो में भी परिवर्तन लाने लगते है। इससे उसके सामाजिक विकास पर भी निम्न प्रभाव पड़ता है-
  • इस अवस्था में किशोर/किशोरी में आत्मप्रेम की भावना बहुत अधिक होती है। वे अपनी वेश-भूषा पर विशेष ध्यान देते हैं तथा स्वयं को आकर्षक बनाने में अधिक समय व्यतीत करते हैं।
  • इस अवस्था किशोर/किशोरी में विषम लिंगीय आकर्षण होने लगता है। वे एक दूसरे के साथ समय बिताने के लिए उत्सुक रहते हैं।
  • इस आयु में बच्चे अपने समूह के सक्रिय व प्रतिष्ठित सदस्य बन जाते है आरै वो समूह के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।
  • इस आयु में बच्चों में आत्म सम्मान की भावना बहुत अधिक होती है और वो अपने को बच्चा न मानकर वयस्क मानते हैं।
  • किशोर/किशोरी में संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति होती है। वे अपनी इच्छाओं को समाज के मापदण्ड के खिलाफ भी पूरा करना चाहते हैं। इसलिए उनके समायोजन में अस्थिरता आ जाती है।
  किशोर / किशोरी के अन्दर सामाजिक चतेना की जागृति ही भावी राष्ट ªीय एकता व मानवीय एकता के लिए प्रारम्भिक प्रयास है।

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